प्रतिस्पर्धा की भीड़ में विशेषज्ञ बनने की कला
यहाँ मैं अपने अनुभव से एक उदाहरण दे रहा हूँ। मेरे एक मित्र ने कॉलेज की पढ़ाई पूरी की और बीमा उद्योग में जाने का निर्णय लिया। एक बार जब उसने अपना प्रशिक्षण पूरा कर लिया और उसे लाइसेंस मिल गया, तो वह बहुत सारे संभावित ग्राहकों को फोन कॉल करने लगा।
न्यायधीश का अनोखा दंड
अमेरिका में एक पंद्रह साल का लड़का था, स्टोर से चोरी करता हुआ पकड़ा गया। पकड़े जाने पर गार्ड की गिरफ्त से भागने की कोशिश में स्टोर का एक शेल्फ भी टूट गया।
ईमानदारी और निष्पक्षता के कोई अपवाद नहीं.....
कम उम्र में अब्राहम लिंकन एक जनरल स्टोर में क्लर्क थे। एक दिन उन्हें पता चला कि एक ग्राहक ने कुछ सिक्के ज़्यादा दिए थे। लिंकन उस ग्राहक को खोजने और सिक्के लौटाने लिए कई मील पैदल चलकर गए। यह कहानी चारों तरफ़ फैल गई और जल्दी ही लिंकन को 'ईमानदार एब' का ख़िताब मिल गया।
आगे चलकर उनकी असंदिग्ध ईमानदारी और सत्यनिष्ठा ने राष्ट्रपति बनने के बाद उनकी बहुत मदद की, जब उनके नेतृत्व में अमेरिका इतिहास के सबसे भीषण दौर से गुज़र रहा था, जहाँ देश का अस्तित्व ही दाँव पर लगा था। लिंकन संभवतः अपनी उपलब्धियों के लिए सबसे प्रशंसित और सम्मानित अमेरिकी राष्ट्रपति थे, लेकिन उनकी उपलब्धियों के मूल में वही सत्यनिष्ठा थी, जिसने छोटे लिंकन को उस ग्राहक को चंद सिक्के लौटाने के लिए प्रेरित किया था।
द रूल्स ऑफ़ सिविलिटी एंड डिसेंट बिहेवियर इन कंपनी एंड कनवर्सेशन.....
कोरी स्लेट या टेब्युला रासा की सोच का इंसान में छिपी संभावनाओं से संबंध.....
स्कॉटिश दर्शनशास्त्री डेविड ह्यूम ने सबसे पहले टेब्युला रासा (tabula rasa) या कोरी स्लेट की सोच को लोगों के सामने रखा था। इस सिद्धांत के अनुसार हर इंसान जब दुनिया में आता है तो उसके पास सोच या विचार के तौर पर कुछ भी नहीं होता और वो हर चीज जो इंसान सोचता या महसूस करता है, वह सब, उसने यहीं पर अपने शिशुकाल से सीखी होती हैं।
कहने का मतलब है कि एक बच्चे का दिमाग एक कोरी स्लेट की तरह होता है जिस पर उससे संपर्क में आने वाला हर व्यक्ति और अनुभव अपनी छाप छोड़ देते हैं। बड़ा होने के दौरान वो जो भी सीखता है, महसूस करता है या अनुभव हासिल करता है. वयस्क अवस्था एक तरह से इन्हीं सब बातों का निचोड़ होती है।
जाहिर तौर पर वयस्क बाद में जो कुछ भी करता या बनता है वो एक तरह से उसके बड़े होने की प्रक्रिया का ही परिणाम होता है। जैसा कि एरिस्टोटल ने लिखा है, "जिस किसी भी बात का प्रभाव पड़ता है, वही अभिव्यक्त होती है।"
जहाँ तक इंसान में छिपी संभावनाओं को जानने के क्षेत्र की बात है तो निज धारणा (self concept) को 20वीं सदी की सबसे बड़ी खोज कहा जा सकता है। इस सोच के मुताबिक हर इंसान जन्म से ही अपने बारे में एक धारणा कायम करता जाता है। फिर आपकी अपने बारे में यही धारणा ही आपके अवचेतन के कंप्यूटर को संचालित करने वाला मास्टर प्रोग्राम बन जाती है। फिर यही तय करती है कि आप क्या सोचेंगे, क्या कहेंगे, महसूस करेंगे और क्या करेंगे। यही वजह है कि आपकी ज़िंदगी में सारा बदलाव, खुद के बारे में धारणा बदलने और अपने बारे में या अपनी दुनिया के बारे में सोचने का अंदाज़ बदलते ही दिखाई देने लगता है।
हर बच्चे का जन्म खुद के बारे में बिना किसी धारणा के होता है। एक वयस्क के तौर पर आपकी हर सोच, मत, अनुभव, व्यवहार या किसी बात को आँकने की क्षमता, आपने बचपन से ही सीखी है। आज आप जो कुछ भी हैं वो उसी सोच या धारणा का परिणाम है जिसे आपने हक़ीक़त मान लिया है। वास्तविकता चाहे जो हो, जब आप किसी बात को सही मान लेते हैं तो वही आपके लिए सच बन जाती है। "आप वो नहीं हैं जो कि आप सोचते हैं कि आप हैं, लेकिन आप जो सोचते हैं आप वो ही हो जाते हैं।"
आख़िरकार, बिलकुल सपाट याददाश्त के साथ वह घर लौटी। एक नई शुरुआत.....
काफ़ी पहले की बात है 30 वर्ष की एक विवाहित महिला थी, जिसके दो बच्चे थे। अन्य लोगों की ही तरह, उसका लालन-पालन एक ऐसे घर में हुआ था, जहाँ उसे हर वक्त आलोचनाओं का सामना करना पड़ता था और माँ-बाप का उसके साथ व्यवहार भी अधिकांशतया अच्छा नहीं होता था।
परिणाम यह हुआ कि उसमें हीनभावना और स्वाभिमान की कमी घर कर गई, और उसमें आत्मविश्वास नाम की भी कोई चीज़ नहीं थी। नकारात्मक सोच के साथ वो हर वक्त डरी-सहमी सी भी रहती थी। वह बहुत ही शर्मीली थी और खुद को महत्वहीन समझती थी। उसे लगता था कि उसमें किसी भी काम के लायक प्रतिभा नहीं थी।
एक दिन, वह कार से स्टोर जा रही थी, लाल बत्ती की अनदेखी करके एक कार आई और उसकी कार से भिड़ गई। जब होश आया तो उसने खुद को अस्पताल में पाया। सिर में हल्की चोट के साथ ही उसकी पूरी याददाश्त ही चली गई थी। वह अब बोल तो सकती थी, लेकिन अपनी गुज़री हुई जिंदगी के बारे में उसे कुछ भी याद नहीं था। वह बिना याददाश्त वाली बनकर रह गई थी।
पहले, डॉक्टरों को लगा कि उसकी यह हालत कुछ दिन तक ही रहेगी। हफ्ते गुज़रे लेकिन उसकी याददाश्त थी कि लौटने का नाम ही नहीं ले रही थी। उसका पति और बच्चे हर रोज़ उससे मिलने आते थे, लेकिन वह उन्हें पहचान नहीं पाती थी। यह अपनी किस्म का एक ऐसा विशिष्ट मामला था कि दूसरे डॉक्टर और विशेषज्ञ भी उसे देखने के लिए आने लगे। वे उसका परीक्षण करते थे और उससे उसका हाल-चाल पूछ लेते थे।
आख़िरकार, बिलकुल सपाट याददाश्त के साथ वह घर लौटी। अपने साथ क्या हुआ है, इसे जानने के लिए उसने चिकित्सा विज्ञान की किताबें पढ़कर, याददाश्त जाने के कारणों का अध्ययन शुरू किया। उसने इस क्षेत्र के विशेषज्ञों से मुलाक़ातें और बातचीत की।
आखिरकार उसने अपनी हालत पर एक पेपर लिख डाला। कुछ ही दिन के बाद, उसे अपना पेपर पढ़ने और उससे संबंधित सवालों के जवाब देने के लिए एक चिकित्सा सम्मेलन में शामिल होने का आमंत्रण मिला। उसे न्यूरोलॉजी संबंधी अपने अनुभव और विचार भी साझा करने थे।
इस दौरान एक चमत्कार ही हुआ। वह बिलकुल ही अलग इंसान बन गई। अस्पताल और बाहर सबकी चर्चा का केंद्र बन जाने से उसे पहली बार यह एहसास हुआ कि वह क़ीमती है, उसका भी कुछ महत्व है और उसका परिवार वाक़ई उसको बहुत चाहता है।
चिकित्सा जगत का ध्यान अपनी ओर खिंचने और उन लोगों से मिली पहचान ने उसके आत्मविश्वास और खुद के बारे में सोच को और बेहतर बना दिया। वह एक बेहद सकारात्मक, आत्मविश्वास से परिपूर्ण, खुले विचारों वाली महिला बन गई जो कि बेहद स्पष्ट वक्ता और जानकारी से परिपूर्ण थी। जिसकी एक वक्ता और अपने विषय की जानकार के तौर पर चिकित्सा जगत में काफ़ी माँग थी।
उसकी बचपन की सारी नकारात्मक यादें मिट चुकी थीं। साथ ही उसमें बसी हीनभावना भी ख़त्म हो गई थी। वह एक बिलकुल ही नई व्यक्ति बन चुकी थी। उसने अपनी सोच बदलकर अपनी पूरी ज़िंदगी बदल डाली।
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जब आप अपनी सोच को बदलते हैं तो आप अपनी जिंदगी को भी बदल देते हैं।