मन सभी धर्मों, कर्मों, प्रवृतियों का अगुआ है। सभी कर्मों (धर्मों) में मन पूर्वगामी है। मन ही प्रधान है, प्रमुख है, सभी धर्म (चैत्तसिक अवस्थाएं) पहले मन में ही पैदा होती हैं। मन सभी मानसिक प्रवृतियों में श्रेष्ठ है, स्वामी है। सभी कर्म मनोमय है। मन सभी मानसिक प्रवृतियों का नेतृत्व करता है क्योंकि सभी मन से ही पैदा होती है। जब कोई व्यक्ति अशुद्ध मन से, मन को मैला करके, बुरे विचार पैदा करके वचन बोलता है या शरीर से कोई पाप कर्म (बुरे कर्म) करता है, तो दुख उसके पीछे-पीछे वैसे ही हो लेता है जैसे बैलगाड़ी खींचने वाले बैलों के पैरों के पीछे-पीछे चक्का (पहिया) चलता है। मन सभी प्रवृतियों, भावनाओं का पुरोगामी है यानी आगे-आगे चलने वाला है। सभी मानसिक क्रियाकलाप मन से ही उत्पन्न होते हैं। मन श्रेष्ठ है, मनोमय है। मन की चेतना ही हमारे सुख-दुख का कारण होती है। हम जो भी फल भुगतते हैं, परिणाम प्राप्त करते हैं। वह मन का ही परिणाम है। कोई भी फल या परिणाम हमारे विचार या मन पर निर्भर है। जब हम अपने मन, वाणी और कमों को शुद्ध करेंगे तभी दुखों से मुक्ति मिल सकती है। मन हमारी सभी प्रकार की भावनाओं, प्रव...
धम्मपदं : दुखों से मुक्ति और सुख शांति के जीवन का मार्ग :
महाकारुणिक तथागत बुद्ध के उपदेशों का यह 'धम्मपद' अनमोल, अमृत वचन है। मानव जीवन का परम उद्देश्य होता है दुखों से मुक्ति और सुख शांति को पाना। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए यह ग्रंथ परिपूर्ण है।
'धम्मपद' 'धम्म' का सरल अर्थ है सदाचार अर्थात 'सज्जनों' द्वारा जीवन में धारण करने, पालन करने योग्य कर्तव्य। और 'पद' शब्द का अर्थ यहां 'मार्ग' माना गया है। इस प्रकार 'धम्मपद' का अर्थ होगा- धम्म यानी सदाचार (Morality) का मार्ग।
ग्रंथ में 'पद' शब्द का एक दूसरा अर्थ भी माना गया है। वह अर्थ है, किसी का कथन, वचन, शिक्षा, उपदेश या वाणी। इस ग्रंथ में 'धम्मपद' का सरल अर्थ है- भगवान बुद्ध के शील सदाचार सम्बंधी उपदेश, वचन या वाणी। इस प्रकार 'धम्मपद' का अर्थ है- धम्म वचन या धम्मवाणी या धम्म देशना।
आज से 2600 साल पहले भगवान बुद्ध ने, बुद्धत्व प्राप्ति के बाद 45 साल तक मध्य देश की आम बोलचाल की भाषा में 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय लोकानुकम्पाय' का जो संदेश और उपदेश दिया था वह त्रिपिटक के रूप में आज भी सुरक्षित है।
तथागत चाहते थे कि उनका संदेश जनसाधारण तक पहुंचे। इसके लिए उन्होंने अर्धमगधी लोकभाषा में उपदेश किया और साथ ही भिक्खुओं को भी यह अनुमति दी कि वे उनके उपदेशों को अपनी भाषा में बदलकर धारण कर सकते हैं। बाद में इसी 'पालि भाषा' में बुद्ध धम्म साहित्य की रचना हुई।
भगवान बुद्ध के समय लिखने की प्रथा प्रचलित थी लेकिन बुद्ध ने स्वयं कोई ग्रंथ नहीं लिखा और न ही उनके शिष्यों द्वारा उनके जीवन काल में उनके उपदेशों को ग्रंथ रूप में लिखा। बुद्ध के समय लेखनकला का ज्ञान होते हुए भी लोग इसका अधिक उपयोग नहीं करते थे बल्कि धम्म उपदेशों को कंठस्थ करने पर ही ज्यादा जोर रहता था। इसलिए उस समय बुद्ध परम्परा के अनुसार भगवान बुद्ध जो कुछ भी उपदेश करते थे, उसको उनके सामने बैठे भिक्षु भिक्षुणी, शिष्य आनंद आदि, भगवान बुद्ध के मुख से निकलते ही कंठस्थ कर लेते थे तथा बाद में समय-समय पर वापस अभ्यास करते रहते थे। इस कारण उन्हें भूलने या लुप्त होने की चिंता नहीं रहती थी।
बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद तीन संगीतियों में उनके उपदेशों का संकलन व संगायन हुआ जो त्रिपिटक तथा अन्य ग्रंथों के रूप में आज उपलब्ध है। सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की उम्र में गृहत्याग किया और 35 वर्ष की उम्र में बोधि प्राप्त करने के बाद तथागत का 80 वर्ष की उम्र में महापरिनिर्वाण हुआ।
भगवान ने 45 साल के लंबे समय में लोक कल्याण के लिए जो कुछ भी धम्म प्रवचन किया, वह इतना विशाल और अलग-अलग विषयों पर था कि मोटे या छोटे रूप में कुछ विभाजन किए बिना उसे समझ पाना मुश्किल था। अतः उन्हें सरल रूप से तीन भागों में बांटा गया-1. विनय पिटक, 2. सुत्त पिटक और 3. अभिधम्म पिटक।
विनय पिटक में पांच ग्रंथ हैं, जिनमें भिक्षु भिक्षुणी के लिए नियम तथा धम्म अनुशासन का संग्रह है। सुत्त पिटक में समाज के साधारण लोगों और विद्वानों के लिए भगवान के उपदेशों का संग्रह है। अभिधम्म पिटक में सिर्फ विद्वानों एवं साधकों द्वारा समझने योग्य गंभीर दार्शनिक सिद्धांत के उपदेश संग्रहित किए गए हैं। ये तीनों पिटक या पिटारे या पेटियों को फिर से उपविभागों में बांटा गया है। भगवान बुद्ध के उपदेशों के इस विशाल संग्रह को त्रिपिटक कहते हैं।
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