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यात्रा के समय का अधिकतम उपयोग करें

हर सफल व्यक्ति अपने 24 घंटों में ज़्यादा से ज़्यादा उपयोगी काम करना चाहता है। उसकी पूरी दिनचर्या ही समय के सर्वश्रेष्ठ उपयोग पर केंद्रित होती है। माइक मरडॉक ने कहा भी है, 'आपके भविष्य का रहस्य आपकी दिनचर्या में छिपा हुआ है।' यात्रा आपकी दिनचर्या का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। आज हर व्यक्ति बहुत सी यात्राएँ करता है, जिनमें उसका बहुत समय लगता है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना होता है कि जहाँ आम व्यक्ति यात्रा के समय में हाथ पर हाथ धरकर बैठता है, वहीं सफल व्यक्ति अपने बहुमूल्य समय का अधिकतम उपयोग करता है। इसलिए समय के सर्वश्रेष्ठ उपयोग का चौथा सिद्धांत है : यात्रा के समय का अधिकतम उपयोग करें। महात्मा गाँधी यात्रा करते समय नींद लेते थे, ताकि वे तरोताजा हो सकें। नेपोलियन जब सेना के साथ युद्ध करने जाते थे, तो रास्ते में पत्र लिखकर अपने समय का सदुपयोग करते थे। एडिसन अपने समय की बर्बादी को लेकर इतने सचेत थे कि किशोरावस्था में जब वे रेल में यात्रा करते थे, तो अपने प्रयोगों में जुटे रहते थे। माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स यात्रा के दौरान मोबाइल पर ज़रूरी बातें करके इस सिद्धांत पर अमल करते हैं। ...

कार्ल मार्क्स और उनकी शिक्षा

दिसम्बर, 1864 में कार्ल मार्क्स ने 'प्रथम अंतर्राष्ट्रीय मजदूर सभा' का गठन किया। इसी के माध्यम से उन्होंने शेष विश्व के श्रमिक वर्ग से संगठित होने का आह्वान किया। उनका कहना था कि यदि श्रमिक वर्ग को अपने अधिकार प्राप्त करने हैं तो उन्हें संगठित होना ही होगा।

वास्तव में कार्ल मार्क्स मजदूर वर्ग के मसीहा थे। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन सामाजिक उत्थान और मजदूर वर्ग को उनका अधिकार दिलाने के लिए समर्पित कर दिया।

मार्क्स ने समाजवाद का सिद्धांत तो दिया ही, साथ ही अर्थशास्त्र से सम्बंधित अनेक सिद्धांतों का भी प्रतिपादन किया। सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में दिए गए उनके महत्त्वपूर्ण योगदान को आज 'मार्क्सवाद' के रूप में याद किया जाता है।

कार्ल मार्क्स के पिता हर्शल मार्क्स एक वकील थे, जो यहूदी परिवार से सम्बंध रखते थे। हर्शल मार्क्स के पिता और भाई यहूदी समुदाय के पुरोहित थे और उनकी पत्नी हॉलैंड के उस परिवार से सम्बंधित थीं, जहां यहूदियों की पुरोहिताई का कार्य होता था।

कार्ल के पिता हर्शल को यहूदियों से नफरत थी, उन पर फ्रांस की महान विभूतियों रूसो और वॉल्टेयर के विचारों का भी गहरा प्रभाव पड़ा था, वे यहूदी से प्रोटेस्टेंट ईसाई बन गए। इसके साथ-साथ उन्होंने अपना नाम भी बदलकर हेनरिक रख लिया जिसकी वजह से उन्हें पर्सिया (Persia) में वकालत करने का एक बेहतरीन मौका मिल गया।

यही वजह थी कि यहूदी से ईसाई बन जाने पर हर्शल मार्क्स या हेनरिक पर से प्रतिबंध हट गए थे और वे सभी सहूलियतें उन्हें मिल गई थीं, जो पर्सिया में प्रत्येक ईसाई को मिल रही थीं।
हेनरिक एक ईमानदार, मेहनती और दृढ़ विचारों वाले व्यक्ति थे। उनमें राष्ट्रवाद की भावना कूट-कूटकर भरी थी। वे एक सच्चे राष्ट्रप्रेमी थे। हेनरिक के व्यक्त्तित्त्व का कार्ल मार्क्स पर गहरा प्रभाव पड़ा।

आरम्भिक शिक्षा पूरी करने के बाद कार्ल ने अक्टूबर, 1835 में बोन विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। कार्ल के पिता भी चाहते थे कि कार्ल भी उन्हीं की तरह वकील बने। इसी वजह से कार्ल को कानून की शिक्षा प्राप्त करने के लिए बोन विश्वविद्यालय में प्रवेश दिलाया गया था।

अध्ययन की इस अवधि में कार्ल की जेनी नामक एक संजीदा और खूबसूरत युवती से सगाई हो गई। जेनी कार्ल की सहपाठी और उनकी बड़ी बहन सोफी की सहेली थी। कार्ल और जेनी दोनों ही एक-दूसरे से प्रभावित थे। हालांकि जेनी कार्ल से उम्र में बड़ी थीं, लेकिन उम्र उनके प्यार के बीच कोई रुकावट नहीं बनी।

एक साल तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद कार्ल आगे की पढ़ाई के लिए बर्लिन चले गए। वे जिस पुस्तक का भी अध्ययन करते थे, उसका उद्धरण और सारांश भी अवश्य लिखते थे। अध्ययन और लेखन प्रक्रिया की भूख ने उन्हें हीगेल तक पहुंचा दिया। उन दिनों पर्सिया में हीगेल के विचारों का खूब बोल-बाला था और फिर सबसे बड़ी बात यह थी कि उनके विचारों को सरकारी संरक्षण प्राप्त था। अतः कार्ल मार्क्स हीगेल के विचारों से अत्यंत प्रभावित थे। गम्भीर बीमारी के चलते ही 10 मई, 1838 को कार्ल के पिता हेनरिक की मृत्यु हो गई।

पूंजीवाद की वजह से ही मजदूर आंदोलन की शुरुआत हुई। हिगेल की अपनी एक बड़ी विशेषता यह थी कि वे एक नई तरह के विचारक थे और उन्होंने ही सर्वप्रथम प्रतिपादित किया था कि प्रकृति और समाज का विकास कभी भी दिशाहीन नहीं होता, क्योंकि इनकी एक निश्चित प्रकृति हुआ करती है।

कार्ल अत्यंत प्रतिभाशाली, चतुर एवं चालाक थे। उनमें चीजों को समझने एवं परखने की विलक्षण प्रतिभा थी। अत्यंत प्रतिभा के धनी होने के कारण ही वे हीगेलपंथियों के 'डॉक्टर क्लब' के महत्त्वपूर्ण सदस्य बन गए थे। इस क्लब में उनकी गहरी पैठ थी। हर कोई उन्हें हीगेल की तरह महत्त्व देता था।

कार्ल पी-एच.डी. करने के लिए बहुत उत्साहित थे। अतः पी-एच.डी. की डिग्री प्राप्त करने के लिए उन्होंने अपना शोध ग्रंथ भी पूरा कर लिया था। इस संदर्भ में उनका विषय था,  'डेमोक्रीट्स और एपीक्यूरस के प्रकृति दर्शनों में भेद। एपीक्यूरस के विचारों ने कार्ल को वैचारिक ऊर्जा जरूर दी। जबकि डेमोक्रीट्स का दर्शन भौतिकवादी था। उनके अनुसार प्रत्येक घटना का कोई-न-कोई कारण होता है। उनका यह भी मानना था कि चीजें सदैव अपना स्वरूप बदलती रहती हैं।

कार्ल की शोधयात्रा का खुला विरोध हुआ। वैसे भी उन्हें इस बात का पता था कि उनके और उनके शोधग्रंथ के साथ न्याय नहीं हो पाएगा। इसी बात को देखते हुए कार्ल ने अपना शोध ग्रंथ बोन विश्वविद्यालय में न प्रस्तुत कर जेना विश्वविद्यालय में प्रस्तुत किया। 15 अप्रैल, 1841 को आशानुरूप कार्ल ने डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।

उस समय की पर्सिया सरकार हर प्रकार की उन्नति की दुश्मन थी। अतः सरकार ऐसे प्राध्यापकों को ढूंढ़ रही थी, जो तरक्की के लिए बदलाव के विरोधी थे। अतः कार्ल के प्राध्यापक बनने में यह समस्या सबसे बड़ी बाधा थी। इस प्रकार कार्ल न तो पिता की इच्छानुसार बोन विश्वविद्यालय में प्राध्यापक बन सके और न वकील। अंततः प्राध्यापक बनने का इरादा भी कार्ल ने अपने हृदय से निकाल दिया।

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